प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। अपने स्वर्गवासी पूर्वजों की शान्ति एवं मोक्ष के लिए किया जाने वाला दान एवं कर्म ही श्राद्ध कहलाता है। इन्हें 16/ सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। श्राद्ध का अर्थ है, श्रद्धाभाव से पितरों के लिए किया गया दान श्रद्धया इदं श्राद्धम् ।
शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी से ऊपर सात लोक माने गये है- (सत्य, तप, महा, जन, स्वर्ग, भुवः, भूमि)। इन सात लोकों में से भुवः लोक को पितरों का निवास स्थान अर्थात पितृलोक माना गया है। अतः पितृलोक को गये हमारे पितरों को कोई कष्ट न हो, इसी उद्देश्य से श्राद्धकर्म किये जाते है। भुवः लोक में जल का अभाव माना गया है, इसीलिए सम्पूर्ण पितृपक्ष में विशेष रूप से जल तर्पण करने का विधान है। इस पितृपक्ष में सभी पितर भुवः अर्थात पितृलोक से पृथ्वीलोक की ओर प्रस्थान करते हैं तथा विना निमंत्रण अथवा आवाहन के भी अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ पहुँच जाते हैं तथा उनके द्वारा किये होम, श्राद्ध एवं तर्पण
से तृप्त हो, उन्हें सर्वसुख का आर्शीवाद प्रदान करते हैं।
पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं – देव ऋण ,ऋषि ऋण एवम पितृ ऋण | आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है |श्राद्ध में तर्पण ,ब्राहमण भोजन एवम दान का विधान है |
जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे़ बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। जब तक पितर श्राद्धकर्ता पुरुष की तीन पीढ़ियों तक रहते हैं ( पिता ,पितामह ,प्रपितामह ) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास, सर्दी गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख -प्यास आदि स्वयम मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं | इसी लिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ | देव लोक व पितृ लोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं | श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं | पर जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं उनका भाग सार रूप से अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बहिर्पद ,रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन , श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहाँ उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं | मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है |श्राद्ध में पितरों के नाम ,गोत्र व मन्त्र व स्वधा शब्द का उच्चारण ही प्रापक हैं जो उन तक सूक्ष्म रूप से हव्य कव्य पहुंचाते हैं |
श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर ,
स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर,
पृथ्वी पर गिरने वाले जल व गंध से देव योनि में स्थित पितर,
ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु , कृमि व कीट योनि में स्थित पितर,
अन्न व पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं |
श्राद्ध में कुतुप काल का विशेष महत्त्व है | सूर्योदय से आठवाँ मुहूर्त कुतुप काल कहलाता है इसी में पितृ तर्पण व श्राद्ध करने से पितरों को तृप्ति मिलती है और वे संतुष्ट हो कर आशीर्वाद प्रदान करते हैं |
श्राद्ध के आरम्भ व अंत में तीन तीन बार निम्नलिखित अमृत मन्त्र का उच्चारण करने से श्राद्ध का अक्षय फल प्राप्त होता है —-
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ||
श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे:-
जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृपक्ष की त्रियोदशी अथवा अमावस्या को किया जाता है।
जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है।
सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है।
पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को किया जाता है।
नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है।
पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे च सोदनः।
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके।
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः॥ ……('गरुड़पुराण' --अध्याय ग्यारह)
अर्थात "ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है। 'वाल्मीकि रामायण' में सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है।
पितरों के श्राद्ध के लिए ‘गया’ को सर्वोत्तम माना गया है, इसे ‘तीर्थों का प्राण’ तथा ‘पाँचवा धाम’ भी कहते है। माता के श्राद्ध के लिए ‘काठियावाड़’ में ‘सिद्धपुर’ को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को ‘मातृगया’ के नाम से भी जाना जाता है। ‘गया’ में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा ‘सिद्धपुर’ (काठियावाड़) में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।
विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषध-सेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग), पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।
यह बात सुनने में थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन यह सच है कि बुंदेलखंड में अब भी पूर्वजों के श्राद्ध में ‘कौवे’ को आमंत्रित करने की परम्परा है। यहां पितृ पक्ष में इस पक्षी को ‘दाई-बाबा’ के नाम से पुकारा जाता है। लोगों का मानना है कि पूर्वज ‘कौवे’ का भी जन्म ले सकते हैं।
बुंदेलखंड में लोग पूर्वज के श्राद्ध की पूर्व संध्या पर ऊंची आवाज में ‘कौवे’ को ‘दाई-बाबा’ कह कर आमंत्रित करते हैं। श्राद्ध के दिन पूर्वजों के नाम हवन-पूजा के बाद बनाए गए पकवान घरों के छप्पर पर फेंके जाते हैं, जिन्हें कौवे झुंड में आकर खाते हैं।
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